Tuesday 22 February 2011

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गीता का ज्ञान अर्जुन को ही क्‍यों

गीता का ज्ञान अर्जुन को ही क्‍यों 

 

युद्ध भूमि है. एक के लिये धर्मक्षेत्र है. दूसरे के लिये कुरुक्षेत्र है. शूरवीरों का समूह है. कोई तलवार भांज रहा है तो कोई प्रत्यंचा चढ़ा रहा है. धनुष की टंकार, हाथियों की चिंघाड़, घोड़ों की टापे, रथों की गडगडाहट, महारथियों की हुंकार और शंखध्वनि. कण-कण युद्ध के स्वागत में तैयार है. ऐसे में वीर अर्जुन धर्मक्षेत्र का भ्रमण कर रहे हैं. उनका रथ हांक रहे हैं संसार को चलाने वाले नारायण. श्रीकृष्ण के सखा पार्थ, इस वातावरण से युद्ध को प्रेरित न होकर भावुक हो जाते हैं. यह कैसे हुआ? क्यों हुआ? धर्मराज का अनुज, धरती को कंपाने वाला योद्धा, श्रीकृष्ण का सखा अर्जुन धर्मविहीन आचरण कैसे कर सकता है? और इस आचरण पर श्रीकृष्ण क्रुद्ध न होकर रणभूमि में ही गीता का ज्ञान दे रहे हैं. कैसे समझें इसे, कैसे माने? इस घटना को दूसरी दृष्टि से देखना होगा. उस युद्धभूमि में सभी एक-दूसरे के सम्बन्धी हैं, मित्र हैं, पर वहाँ सब दो खेमों में बंट गये हैं. सामने केवल शत्रु नज़र आ रहा है. न तो धृतराष्ट्र को पांडवों में अनुज पुत्र दिखे और न धर्मराज युधिष्ठिर को दुर्योधन में अनुज दिखाई दिया. शूरवीरों में केवल और केवल अर्जुन है जिसे हर व्यक्ति में सम्बन्धी दिख रहा है. कोई उसके पितामह, कोई भ्राता तो कोई सखा है. वही है जो किसी चेहरे में शत्रु नहीं देख पा रहा. उस भीड़ में वे चेहरे भी हैं जिन्होंने उसे, उसकी माँ को, उसके भाइयों को वन में भटकने पर मजबूर किया, जिन्होंने उसकी पत्नी का अपमान किया और जिन्होंने उन्हें मारने तक का षडयंत्र किया. पर महान है अर्जुन, जो इतना होने पर भी उसका स्नेह कम नहीं होता. उसे सब प्रिय हैं. इतने प्रिय हैं कि वो उन्हें मार नहीं सकता. इतने प्रिय हैं कि उन्हें खोकर उसे धरा का राज्य नहीं चाहिये. इतने प्रिय हैं कि उन्हें मारने की अपेक्षा अपने प्राण त्याग दे. ऐसी सम दृष्टि तो ईश्वर के सखा की ही हो सकती है. अक्सर मन में प्रश्न उठता था कि यदि अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहता था तो कृष्ण ने उसे गीता का ज्ञान क्यों दिया? धर्मराज युधिष्ठिर को क्यों नहीं दिया? इन प्रश्नों का उत्तर दिया मेरे पूज्य गुरु जी ने. उन्होंने कहा कि गाय बछड़े को देख कर ही दूध देती है. इसमें गाय की कोई चालाकी नहीं है. उसके थन में दूध उतरेगा ही तब जब वो भूख से व्याकुल बछड़े को देखेगी. श्रीकृष्ण की ज्ञान गंगा भी बछड़े को देख कर, अर्जुन को देखकर बह निकली. अर्जुन में ईश्वर के प्रति समर्पण है. रथ हांकने का अर्थ यही है कि अर्जुन का जीवन रथ श्रीकृष्ण चलाते हैं. अर्जुन में करुणा है, प्रेम है. वह निश्छल है. वही है जो उस ज्ञान गंगा के लिये सुपात्र है....
आज गीता जयंती पर उस भक्त को प्रणाम जिसकी पात्रता से हमें ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति हुई और जगद्गुरु उन श्रीकृष्ण को वंदन जिन्होंने जीवन का मार्ग बताने वाली गीता को प्रकट किया. हरिःॐ

Saturday 19 February 2011

कन्हैया तो काल का काल है"

कन्हैया तो काल का काल है"
 
जब पूरा ब्रज भगवान श्रीकृष्ण के जन्म का उत्सव मना रहा था तो भगवान शंकर के मन में भी विष्णु के बालस्वरूप के दर्शन करने की इच्छा हुई। भादौ शुक्ल द्वादशी के दिन भगवान शंकर गोकुल में आए। शिवजी के पास एक दासी आई और कहने लगी कि यशोदाजी ने ये भिक्षा भेजी है इसे स्वीकार कर लें और लाला को आशीर्वाद दे दें। शिव बोले मैं भिक्षा नहीं लूंगा, मुझे किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं है मुझे तो बालकृष्ण के दर्शन करना है। दासी ने यह समाचार यशोदाजी को पहुंचा दिया। यशोदाजी ने खिड़की में से बाहर देखकर कह दिया कि लाला को बाहर नहीं लाऊंगी, तुम्हारे गले में सर्प है जिसे देखकर मेरा लाला डर जाएगा। शिवजी बोले कि माता तेरा कन्हैया तो काल का काल है, ब्रह्म का ब्रह्म है। वह किसी से नहीं डर सकता, उसे किसी की भी कुदृष्टि नहीं लग सकती और वह तो मुझे पहचानता है।

यशोदाजी बोलीं-कैसी बातें कर रहे हो आप? मेरा लाला तो नन्हा सा है आप हठ न करें। शिवजी ने कहा- तेरे लाला के दर्शन किए बिना मैं यहां से नहीं हटूंगा। इधर बाल कन्हैया ने जाना कि शिवजी पधारे हैं और माता वहां ले नहीं जाएंगी, तो उन्होंने जोर से रोना शुरु किया। शिवजी की बहुत विनय करने के बाद यशोदाजी बालकृष्ण को बाहर लेकर आई। शिवजी ने सोचा कि अब कन्हैया मेरे पास आएंगे, शिवजी ने दर्शन करके प्रणाम किया किन्तु इतने से तृप्ति नहीं हुई। वे अपनी गोद में लेना चाहते थे। शिवजी यशोदाजी से बोले कि तुम बालक के भविष्य के बारे में पूछती हो, यदि इसे मेरी गोद में दिया जाए तो मैं इसकी हाथों की रेखा अच्छी तरह से देख लूंगा। यशोदा ने बालकृष्ण को शिवजी की गोद में रख दिया। शिवजी समाधि में डूब गए। जब हरि और हर एक हो गए तो वहां कौन क्या बोलेगा।

जब कंस ने नवजात शिशुओं को मारने का आदेश दिया

जब कंस ने नवजात शिशुओं को मारने का आदेश दिया
 
शुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! जब वसुदेव और देवकी ने इस प्रकार प्रसन्न होकर निष्कपट भाव से कंस के साथ बातचीत की, तब उनसे अनुमति लेकर कंस अपने महल में चला गया। वह रात्रि बीत जाने पर कंस ने अपने मंत्रियों को बुलाया और योगमाया ने जो कुछ कहा था वह सब उन्हें सुनाया। कंस के मंत्री पूर्णतया नीतिनिपुण नहीं थे।
दैत्य होने के कारण स्वभाव से ही वे देवताओं के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। अपने स्वामी कंस की बात सुनकर वे देवताओं पर और भी चिढ़ गए और कंस से कहने लगे-भोजराज! यदि ऐसी बात है तो हम आज ही बड़े-बड़े नगरों में, छोटे-छोटे गांवों में, अहीरों की बस्तियों में और दूसरे स्थानों में जितने बच्चे हुए हैं वे चाहे दस दिन से अधिक के हों या कम के, सबको कोई उपाय कर जल्दी ही मार डालेंगे। इस प्रकार उन बालकों क साथ देवकी की आठवी संतान भी नष्ट हो जाएगी और आपको कोई भय भी नहीं रहेगा।कंस ने भी इसके लिए हामी भर दी।
इधर बालक के जन्म की खुशी में नंदग्राम में उत्सव मनाया जा रहा था। पूरा गोकुल आनंद मना रहा था। आसपास के गांव की सभी स्त्रियां नंदबाबा के घर बालक को आशीर्वाद देने पहुंची। साथ-साथ वे मंगलगान भी गाती जाती थीं। नंदबाबा ने भी विशाल ह्रदय से दान दिया। उस दिन से नंदबाबा के व्रज में सब प्रकार की रिद्धि-सिद्धि अठखेलियां करने लगीं और भगवान श्रीकृष्ण के निवास तथा अपने स्वभाविक गुणों के कारण वह लक्ष्मीजी का क्रीडास्थल बन गया।
जब मुनि गर्गाचार्य ने किया यशोदानंदन का नामकरण
 
पिछले अंक में हमने पढ़ा यादवों के कुलगुरु श्रीगर्गाचार्य गोकुल में आए। नंदबाबा ने उनसे बालकों के नामकरण की इच्छा प्रकट की। तब यह बात तय हुई कि नामकरण बिना किसी उत्सव से चुपचाप किया जाएगा। नंदबाबा ने हां कह दिया।सबसे पहले गर्गाचार्यजी ने देवी रोहिणी के पुत्र का नामकरण किया और नंदबाबा से कहा- यह रोहिणी का पुत्र है इसलिए इसका नाम होगा रौहिणेय। यह अपने सगे-सम्बन्धी और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा। इसलिए इसका नाम होगा राम। इसके बल की कोई सीमा नहीं है, अत: इसका एक नाम बलराम भी है। संकर्षण के माध्यम से यह देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में आया है इसलिए इसका एक नाम संकर्षण भी होगा।

इसके बाद गर्गाचार्यजी ने यशोदानंदन का नामकरण किया-नंदलाल को देखते ही गर्गाचार्यजी का चेहरा खुशी से खिल उठा। उन्होंने कहा- यशोदा यह जो सांवले रंग का तुम्हारा पुत्र है। यह प्रत्येक युग में शरीर ग्रहण करता है। पिछले युगों में इसने क्रमश: श्वेत, रक्त और पीत-ये तीन रंग स्वीकार किए थे। अब की यह कृष्णवर्ण हुआ है। इसलिए इसका नाम कृष्ण होगा। नन्दजी! यह तुम्हारा पुत्र पहले कभी वसुदेवजी के घर भी पैदा हुआ था इसलिए इस रहस्य को जानने वाले लोग इसे वसुदेव भी कहेंगे।
तुम्हारे पुत्र के और भी बहुत से नाम हैं तथा रूप भी अनेक हैं। इसके जितने गुण हैं और जितने कर्म, उन सबके अनुसार अलग-अलग नाम पड़ जाते हैं। मैं तो उन नामों को जानता हूं, परन्तु संसार के साधारण लोग नहीं जानते। यह अपनी लीलाओं से सबको आनंदित करेगा और दुष्टों का सर्वनाश करेगा

Friday 18 February 2011

माता यशोदा ने क्यों बांधा बालकृष्ण को ?

माता यशोदा ने क्यों बांधा बालकृष्ण को ?
 
  माता यशोदा दूध उफनता देख बालकृष्ण को अतृप्त छोड़कर दूध उतारने चली जाती हैं। गुस्से में बालकृष्ण दही की मटकी फोड़ देते हैं। यशोदाजी जब वापस आती हैं तो देखती हैं कि दही का मटका फूटा पड़ा है। वे समझ गईं कि यह सब मेरे लाला की करतूत है। इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखल पर खड़े हैं और छीके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे हैं।

उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाए इसलिए चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं। यह देखकर यशोदारानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुंची। जब श्रीकृष्ण ने देखा कि मां हाथ में छड़ी लिए मेरी ही ओर आ रही है, तब झट से ओखली पर से कूद पड़े और डरकर भागने लगे। उन्हें पकडऩे के लिए यशोदाजी भी दौड़ीं। श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर वे उन्हें डराने लगीं। तब माता यशोद ने श्रीकृष्ण को ओखल से बांधने का निश्चय किया। बांधने के लिए वे जिस भी रस्सी को उठाती, वही छोटी पडऩे लगती।
काफी प्रयास करने के बाद भी जब यशोदा कृष्ण को नहीं बांध पाई तो परेशान हो गई। इस घटना का अभिप्राय है कि भगवान को तो केवल भावों से बांधा जा सकता है, क्रोध और अहंकार से भगवान बंधने वाले नहीं। माता ने सारे प्रयास कर डाले लेकिन कृष्ण बंध नहीं पाए। दो अंगुल रस्सी कम पड़ गई, एक अंगुल भक्ति की और दूसरी भावना की। भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि माता बहुत थक गई हैं तब कृपा करके वे स्वयं ही बंधन में बंध गए। इस प्रकार भगवान ने स्वयं बंधन स्वीकार कर लिया।

जब श्रीकृष्ण ने मुक्ति दी कुबेरपुत्रों को

जब श्रीकृष्ण ने मुक्ति दी कुबेरपुत्रों को
 जब माता यशोदा ने बालकृष्ण को ओखल से बांध दिया तब कृष्ण वृक्ष रूप में शापित जीवन बिताने वाले कुबेर के पुत्र नलकुबेर और मणिग्रीव के उद्धार करने के विचार से मूसल खींचकर वृक्षों के समीप ले गए और दोनों के मध्य से स्वयं निकलकर ज्यों ही जोर लगाया कि दोनों वृक्ष उखड़ गए और इन दोनों का उद्धार हो गया।

शुकदेवजी ने कहा-परीक्षित। नलकुबेर और मणिग्रीव। ये दोनों धनाध्यक्ष कुबेर के लाड़ले लड़के थे और इनकी गिनती रुद्र भगवान के अनुचरों में भी होती थी। इससे उनका घमंड बढ़ गया। एक दिन वे दोनों मंदाकिनी के तट पर कैलाश के रमणीय उपवन में वारुणी मदिरा पीकर मदोन्मत हो गए थे। बहुत सी स्त्रियां उनके साथ गा-बजा रहीं थीं और वे पुष्पों से लदे हुए वन में उनके साथ विहार कर रहे थे। वे स्त्रियों के साथ जल के भीतर घुस गए और जल क्रीडा करने लगे। संयोगवश उधर से देवर्षि नारदजी आ निकले। उन्होंने यक्षपुत्रों को देखा और समझ लिया कि ये इस समय मतवाले हो रहे हैं।
इसलिए ये दोनों अब वृक्षयोनि में जाने के योग्य हैं। ऐसा होने से इन्हें फिर इस प्रकार का अभिमान न होगा। वृक्षयोनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रह से देवताओं के सौ वर्ष बीतने पर इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का सान्निध्य प्राप्त होगा और फिर भगवान के चरणों में परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोक में चले आएंगे। तभी से वे वृक्षयोनि में अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रहे थे