Tuesday 22 February 2011

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गीता का ज्ञान अर्जुन को ही क्‍यों

गीता का ज्ञान अर्जुन को ही क्‍यों 

 

युद्ध भूमि है. एक के लिये धर्मक्षेत्र है. दूसरे के लिये कुरुक्षेत्र है. शूरवीरों का समूह है. कोई तलवार भांज रहा है तो कोई प्रत्यंचा चढ़ा रहा है. धनुष की टंकार, हाथियों की चिंघाड़, घोड़ों की टापे, रथों की गडगडाहट, महारथियों की हुंकार और शंखध्वनि. कण-कण युद्ध के स्वागत में तैयार है. ऐसे में वीर अर्जुन धर्मक्षेत्र का भ्रमण कर रहे हैं. उनका रथ हांक रहे हैं संसार को चलाने वाले नारायण. श्रीकृष्ण के सखा पार्थ, इस वातावरण से युद्ध को प्रेरित न होकर भावुक हो जाते हैं. यह कैसे हुआ? क्यों हुआ? धर्मराज का अनुज, धरती को कंपाने वाला योद्धा, श्रीकृष्ण का सखा अर्जुन धर्मविहीन आचरण कैसे कर सकता है? और इस आचरण पर श्रीकृष्ण क्रुद्ध न होकर रणभूमि में ही गीता का ज्ञान दे रहे हैं. कैसे समझें इसे, कैसे माने? इस घटना को दूसरी दृष्टि से देखना होगा. उस युद्धभूमि में सभी एक-दूसरे के सम्बन्धी हैं, मित्र हैं, पर वहाँ सब दो खेमों में बंट गये हैं. सामने केवल शत्रु नज़र आ रहा है. न तो धृतराष्ट्र को पांडवों में अनुज पुत्र दिखे और न धर्मराज युधिष्ठिर को दुर्योधन में अनुज दिखाई दिया. शूरवीरों में केवल और केवल अर्जुन है जिसे हर व्यक्ति में सम्बन्धी दिख रहा है. कोई उसके पितामह, कोई भ्राता तो कोई सखा है. वही है जो किसी चेहरे में शत्रु नहीं देख पा रहा. उस भीड़ में वे चेहरे भी हैं जिन्होंने उसे, उसकी माँ को, उसके भाइयों को वन में भटकने पर मजबूर किया, जिन्होंने उसकी पत्नी का अपमान किया और जिन्होंने उन्हें मारने तक का षडयंत्र किया. पर महान है अर्जुन, जो इतना होने पर भी उसका स्नेह कम नहीं होता. उसे सब प्रिय हैं. इतने प्रिय हैं कि वो उन्हें मार नहीं सकता. इतने प्रिय हैं कि उन्हें खोकर उसे धरा का राज्य नहीं चाहिये. इतने प्रिय हैं कि उन्हें मारने की अपेक्षा अपने प्राण त्याग दे. ऐसी सम दृष्टि तो ईश्वर के सखा की ही हो सकती है. अक्सर मन में प्रश्न उठता था कि यदि अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहता था तो कृष्ण ने उसे गीता का ज्ञान क्यों दिया? धर्मराज युधिष्ठिर को क्यों नहीं दिया? इन प्रश्नों का उत्तर दिया मेरे पूज्य गुरु जी ने. उन्होंने कहा कि गाय बछड़े को देख कर ही दूध देती है. इसमें गाय की कोई चालाकी नहीं है. उसके थन में दूध उतरेगा ही तब जब वो भूख से व्याकुल बछड़े को देखेगी. श्रीकृष्ण की ज्ञान गंगा भी बछड़े को देख कर, अर्जुन को देखकर बह निकली. अर्जुन में ईश्वर के प्रति समर्पण है. रथ हांकने का अर्थ यही है कि अर्जुन का जीवन रथ श्रीकृष्ण चलाते हैं. अर्जुन में करुणा है, प्रेम है. वह निश्छल है. वही है जो उस ज्ञान गंगा के लिये सुपात्र है....
आज गीता जयंती पर उस भक्त को प्रणाम जिसकी पात्रता से हमें ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति हुई और जगद्गुरु उन श्रीकृष्ण को वंदन जिन्होंने जीवन का मार्ग बताने वाली गीता को प्रकट किया. हरिःॐ

Saturday 19 February 2011

कन्हैया तो काल का काल है"

कन्हैया तो काल का काल है"
 
जब पूरा ब्रज भगवान श्रीकृष्ण के जन्म का उत्सव मना रहा था तो भगवान शंकर के मन में भी विष्णु के बालस्वरूप के दर्शन करने की इच्छा हुई। भादौ शुक्ल द्वादशी के दिन भगवान शंकर गोकुल में आए। शिवजी के पास एक दासी आई और कहने लगी कि यशोदाजी ने ये भिक्षा भेजी है इसे स्वीकार कर लें और लाला को आशीर्वाद दे दें। शिव बोले मैं भिक्षा नहीं लूंगा, मुझे किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं है मुझे तो बालकृष्ण के दर्शन करना है। दासी ने यह समाचार यशोदाजी को पहुंचा दिया। यशोदाजी ने खिड़की में से बाहर देखकर कह दिया कि लाला को बाहर नहीं लाऊंगी, तुम्हारे गले में सर्प है जिसे देखकर मेरा लाला डर जाएगा। शिवजी बोले कि माता तेरा कन्हैया तो काल का काल है, ब्रह्म का ब्रह्म है। वह किसी से नहीं डर सकता, उसे किसी की भी कुदृष्टि नहीं लग सकती और वह तो मुझे पहचानता है।

यशोदाजी बोलीं-कैसी बातें कर रहे हो आप? मेरा लाला तो नन्हा सा है आप हठ न करें। शिवजी ने कहा- तेरे लाला के दर्शन किए बिना मैं यहां से नहीं हटूंगा। इधर बाल कन्हैया ने जाना कि शिवजी पधारे हैं और माता वहां ले नहीं जाएंगी, तो उन्होंने जोर से रोना शुरु किया। शिवजी की बहुत विनय करने के बाद यशोदाजी बालकृष्ण को बाहर लेकर आई। शिवजी ने सोचा कि अब कन्हैया मेरे पास आएंगे, शिवजी ने दर्शन करके प्रणाम किया किन्तु इतने से तृप्ति नहीं हुई। वे अपनी गोद में लेना चाहते थे। शिवजी यशोदाजी से बोले कि तुम बालक के भविष्य के बारे में पूछती हो, यदि इसे मेरी गोद में दिया जाए तो मैं इसकी हाथों की रेखा अच्छी तरह से देख लूंगा। यशोदा ने बालकृष्ण को शिवजी की गोद में रख दिया। शिवजी समाधि में डूब गए। जब हरि और हर एक हो गए तो वहां कौन क्या बोलेगा।

जब कंस ने नवजात शिशुओं को मारने का आदेश दिया

जब कंस ने नवजात शिशुओं को मारने का आदेश दिया
 
शुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! जब वसुदेव और देवकी ने इस प्रकार प्रसन्न होकर निष्कपट भाव से कंस के साथ बातचीत की, तब उनसे अनुमति लेकर कंस अपने महल में चला गया। वह रात्रि बीत जाने पर कंस ने अपने मंत्रियों को बुलाया और योगमाया ने जो कुछ कहा था वह सब उन्हें सुनाया। कंस के मंत्री पूर्णतया नीतिनिपुण नहीं थे।
दैत्य होने के कारण स्वभाव से ही वे देवताओं के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। अपने स्वामी कंस की बात सुनकर वे देवताओं पर और भी चिढ़ गए और कंस से कहने लगे-भोजराज! यदि ऐसी बात है तो हम आज ही बड़े-बड़े नगरों में, छोटे-छोटे गांवों में, अहीरों की बस्तियों में और दूसरे स्थानों में जितने बच्चे हुए हैं वे चाहे दस दिन से अधिक के हों या कम के, सबको कोई उपाय कर जल्दी ही मार डालेंगे। इस प्रकार उन बालकों क साथ देवकी की आठवी संतान भी नष्ट हो जाएगी और आपको कोई भय भी नहीं रहेगा।कंस ने भी इसके लिए हामी भर दी।
इधर बालक के जन्म की खुशी में नंदग्राम में उत्सव मनाया जा रहा था। पूरा गोकुल आनंद मना रहा था। आसपास के गांव की सभी स्त्रियां नंदबाबा के घर बालक को आशीर्वाद देने पहुंची। साथ-साथ वे मंगलगान भी गाती जाती थीं। नंदबाबा ने भी विशाल ह्रदय से दान दिया। उस दिन से नंदबाबा के व्रज में सब प्रकार की रिद्धि-सिद्धि अठखेलियां करने लगीं और भगवान श्रीकृष्ण के निवास तथा अपने स्वभाविक गुणों के कारण वह लक्ष्मीजी का क्रीडास्थल बन गया।
जब मुनि गर्गाचार्य ने किया यशोदानंदन का नामकरण
 
पिछले अंक में हमने पढ़ा यादवों के कुलगुरु श्रीगर्गाचार्य गोकुल में आए। नंदबाबा ने उनसे बालकों के नामकरण की इच्छा प्रकट की। तब यह बात तय हुई कि नामकरण बिना किसी उत्सव से चुपचाप किया जाएगा। नंदबाबा ने हां कह दिया।सबसे पहले गर्गाचार्यजी ने देवी रोहिणी के पुत्र का नामकरण किया और नंदबाबा से कहा- यह रोहिणी का पुत्र है इसलिए इसका नाम होगा रौहिणेय। यह अपने सगे-सम्बन्धी और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा। इसलिए इसका नाम होगा राम। इसके बल की कोई सीमा नहीं है, अत: इसका एक नाम बलराम भी है। संकर्षण के माध्यम से यह देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में आया है इसलिए इसका एक नाम संकर्षण भी होगा।

इसके बाद गर्गाचार्यजी ने यशोदानंदन का नामकरण किया-नंदलाल को देखते ही गर्गाचार्यजी का चेहरा खुशी से खिल उठा। उन्होंने कहा- यशोदा यह जो सांवले रंग का तुम्हारा पुत्र है। यह प्रत्येक युग में शरीर ग्रहण करता है। पिछले युगों में इसने क्रमश: श्वेत, रक्त और पीत-ये तीन रंग स्वीकार किए थे। अब की यह कृष्णवर्ण हुआ है। इसलिए इसका नाम कृष्ण होगा। नन्दजी! यह तुम्हारा पुत्र पहले कभी वसुदेवजी के घर भी पैदा हुआ था इसलिए इस रहस्य को जानने वाले लोग इसे वसुदेव भी कहेंगे।
तुम्हारे पुत्र के और भी बहुत से नाम हैं तथा रूप भी अनेक हैं। इसके जितने गुण हैं और जितने कर्म, उन सबके अनुसार अलग-अलग नाम पड़ जाते हैं। मैं तो उन नामों को जानता हूं, परन्तु संसार के साधारण लोग नहीं जानते। यह अपनी लीलाओं से सबको आनंदित करेगा और दुष्टों का सर्वनाश करेगा

Friday 18 February 2011

माता यशोदा ने क्यों बांधा बालकृष्ण को ?

माता यशोदा ने क्यों बांधा बालकृष्ण को ?
 
  माता यशोदा दूध उफनता देख बालकृष्ण को अतृप्त छोड़कर दूध उतारने चली जाती हैं। गुस्से में बालकृष्ण दही की मटकी फोड़ देते हैं। यशोदाजी जब वापस आती हैं तो देखती हैं कि दही का मटका फूटा पड़ा है। वे समझ गईं कि यह सब मेरे लाला की करतूत है। इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखल पर खड़े हैं और छीके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे हैं।

उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाए इसलिए चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं। यह देखकर यशोदारानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुंची। जब श्रीकृष्ण ने देखा कि मां हाथ में छड़ी लिए मेरी ही ओर आ रही है, तब झट से ओखली पर से कूद पड़े और डरकर भागने लगे। उन्हें पकडऩे के लिए यशोदाजी भी दौड़ीं। श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर वे उन्हें डराने लगीं। तब माता यशोद ने श्रीकृष्ण को ओखल से बांधने का निश्चय किया। बांधने के लिए वे जिस भी रस्सी को उठाती, वही छोटी पडऩे लगती।
काफी प्रयास करने के बाद भी जब यशोदा कृष्ण को नहीं बांध पाई तो परेशान हो गई। इस घटना का अभिप्राय है कि भगवान को तो केवल भावों से बांधा जा सकता है, क्रोध और अहंकार से भगवान बंधने वाले नहीं। माता ने सारे प्रयास कर डाले लेकिन कृष्ण बंध नहीं पाए। दो अंगुल रस्सी कम पड़ गई, एक अंगुल भक्ति की और दूसरी भावना की। भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि माता बहुत थक गई हैं तब कृपा करके वे स्वयं ही बंधन में बंध गए। इस प्रकार भगवान ने स्वयं बंधन स्वीकार कर लिया।

जब श्रीकृष्ण ने मुक्ति दी कुबेरपुत्रों को

जब श्रीकृष्ण ने मुक्ति दी कुबेरपुत्रों को
 जब माता यशोदा ने बालकृष्ण को ओखल से बांध दिया तब कृष्ण वृक्ष रूप में शापित जीवन बिताने वाले कुबेर के पुत्र नलकुबेर और मणिग्रीव के उद्धार करने के विचार से मूसल खींचकर वृक्षों के समीप ले गए और दोनों के मध्य से स्वयं निकलकर ज्यों ही जोर लगाया कि दोनों वृक्ष उखड़ गए और इन दोनों का उद्धार हो गया।

शुकदेवजी ने कहा-परीक्षित। नलकुबेर और मणिग्रीव। ये दोनों धनाध्यक्ष कुबेर के लाड़ले लड़के थे और इनकी गिनती रुद्र भगवान के अनुचरों में भी होती थी। इससे उनका घमंड बढ़ गया। एक दिन वे दोनों मंदाकिनी के तट पर कैलाश के रमणीय उपवन में वारुणी मदिरा पीकर मदोन्मत हो गए थे। बहुत सी स्त्रियां उनके साथ गा-बजा रहीं थीं और वे पुष्पों से लदे हुए वन में उनके साथ विहार कर रहे थे। वे स्त्रियों के साथ जल के भीतर घुस गए और जल क्रीडा करने लगे। संयोगवश उधर से देवर्षि नारदजी आ निकले। उन्होंने यक्षपुत्रों को देखा और समझ लिया कि ये इस समय मतवाले हो रहे हैं।
इसलिए ये दोनों अब वृक्षयोनि में जाने के योग्य हैं। ऐसा होने से इन्हें फिर इस प्रकार का अभिमान न होगा। वृक्षयोनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रह से देवताओं के सौ वर्ष बीतने पर इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का सान्निध्य प्राप्त होगा और फिर भगवान के चरणों में परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोक में चले आएंगे। तभी से वे वृक्षयोनि में अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रहे थे

फल बेचने वाली का उद्धार किया श्रीकृष्ण ने

फल बेचने वाली का उद्धार किया श्रीकृष्ण ने
 
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि बालकृष्ण ने वृक्षरूपी कुबेर के पुत्रों को मुक्ति दिलाई। वृक्षों के गिरने से जो भयंकर आवाज हुई। उसे सुन नन्दबाबा आदि गोप आवाज की दिशा में दौड़े। उन्होंने देखा कि दो वृक्ष गिरे हुए हैं और पास ही बालकृष्ण ओखल से बंधे हुए खेल रहे हैं। किसी को कुछ समझ नहीं आया कि वृक्ष कैसे गिरे?

वहां कुछ बालक खेल रहे थे। नंदबाबा से उनसे पूछा तो उन्होंने बताया कि कृष्ण इन दोनों वृक्षों के बीच में से होकर निकल रहा था। ऊखल तिरछा हो जाने पर दूसरी ओर से इसने उसे खींचा और वृक्ष गिर पड़े। हमने तो इनमें से निकलते हुए दो पुरुष भी देखे हैं। इस बात को किसी ने नहीं माना। तब नन्दबाबा ने कृष्ण के बंधन खोलकर उसे गोद में उठा लिया और आश्चर्य से देखने लगे।
एक दिन कान्हा के घर के सामने से एक फल बेचने वाली निकली। वह आवाज लगाती जाती- ताजे मीठे फल ले लो। यह सुनकर कृष्ण भी अंजुलि में अनाज लेकर फल लेने के लिए दौड़े। अनाज तो रास्ते में ही बिखर गया, पर फल बेचने वाली ने बालकृष्ण की मोहिनी सूरत देखकर उनके हाथ फल से भर दिए। भगवान ने उसके इस प्रेम के बदले में उसकी फल रखने वाली टोकरी रत्नों से भर दी।
वास्तव में वह फल भगवान के प्रति प्रेम व आस्था का प्रतीक हैं और वह रत्न भगवान द्वारा दिया गया उपहार। इस घटना से अभिप्राय है कि यदि हम प्रेम व आस्था से भगवान की भक्ति करेंगे तो भगवान भी अपने भक्त की हर मनोकामना पूरी करेंगे।

श्रीकृष्ण की कर्मस्थली है वृंदावन

श्रीकृष्ण की कर्मस्थली है वृंदावन
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि नंदबाबा आदि सभी गोप-गोपियां अपना गौधन आदि संपत्ति लेकर वृंदावन में आकर बस गए। वृन्दा का अर्थ है भक्ति। सो भक्ति का वन है वृन्दावन।

बालक के पांच वर्ष पूर्ण होने पर उसे गोकुल से वृन्दावन ले जाया जाए अर्थात लाड़ प्यार की प्राथमिक अवस्था में से अब उसे भक्ति के वन में लाया जाना चाहिए। बच्चों का हृदय बड़ा कोमल होता है अत: उसे दिए गए संस्कार उसके मन में अच्छी तरह जम जाते हैं। उसे बचपन में अच्छें संस्कार देंगे, तो उसका यौवन भ्रष्ट नहीं होगा और वह जीवनभर संस्कारी बना रहेगा।
अब भगवान गोकुल छोड़ चुके हैं। नई जगह आए हैं वृन्दावन और वृन्दावन के बारे में ऐसा कहते हैं कि वृन्दावन में राजा नहीं हुआ, वृन्दावन में रानी हुई है राधा। यह राधा का क्षेत्र है। वृन्दावन के पास में एक गांव था बरसाना और बरसाना के मुखिया थे वृषभानु और उनकी बेटी थी राधा। भगवान की जन्मस्थली थी गोकुल और कर्मस्थली वृन्दावन। भागवत कथा में यहां से राधाजी का प्रवेश हो रहा है।
यदि भागवत को बारीकी से पढ़ें, तो भागवत में श्री या तो शुकदेवजी के लिए एक बार लगा है या कृष्णजी के लिए एक बार लगा है। बाकी किसी भी पात्र के लिए भागवतजी में श्री नहीं लगाया जाता। लोगों ने पूछा ऐसा क्यों, तो व्यासजी ने बताया ये भागवत में श्री शब्द का अर्थ है राधा। जैसे श्रीमद्भागवत यहां भागवत की शुरुआत में ही राधाजी का स्मरण किया गया है। चूंकि उनके बिना भागवत हो ही नहीं सकती।

ब्रज छोड़कर वृंदावन आकर क्यों बसे ब्रजवासी?

ब्रज छोड़कर वृंदावन आकर क्यों बसे ब्रजवासी?
 
जब नंदबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने देखा कि ब्रज में तो बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं। तब उन्होंने मिलकर यह विचार किया कि ब्रजवासियों को कहीं दूसरे स्थान पर जाकर रहना चाहिए। ब्रज के एक गोप का नाम था उपनन्द। उन्हें इस बात का पता था कि किस समय किस स्थान पर रहना उचित होगा। उन्होंने कहा-भाइयों। अब यहां ऐसे बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं, जो बच्चों के लिए तो बहुत ही अनिष्टकारी हैं।
इसलिए हमें यहां से अपना घरबार समेट कर अन्यत्र चलना चाहिए। देखो यह सामने बैठा हुआ नंदराय का लाड़ला श्रीकृष्ण है, सबसे पहले यह हत्यारी पूतना के चंगुल से छूटा। इसके बाद भगवान की दूसरी कृपा से इसके ऊपर इतना बड़ा छकड़ा गिरते-गिरते बचा। बवंडर रूपधारी दैत्य तो इसे आकाश में ले गया था लेकिन वह भी इसका कुछ नहीं बिगाड़ सका। तब भी भगवान ने ही इस बालक की रक्षा की। यमलार्जुन वृक्षों के गिरने के समय उनके बीच में आकर भी इसे कुछ नहीं हुआ। यह भी ईश्वरीय चमत्कार था।
इससे पहले कि अब कोई और खतरा यहां आए हमें अपने बच्चों को लेकर अनुचरों के साथ यहां से अन्यत्र चले जाना चाहिए। यहां से कुछ दूर वृन्दावन नाम का एक वन है। वह पूर्णत: हरियाली से आच्छादित है। हमारे पशुओं के लिए तो वह बहुत ही हितकारी है। गोप, गोपी और गायों के लिए वह केवल सुविधा का ही नहीं, सेवन करने योग्य स्थान भी है। सो यदि तुम सब लोगों को यह बात जंचती हो तो आज ही हम लोग वहां के लिए कूच कर दें। उपनन्द की बात सुनकर सभी ने हां कह दी और सभी आवश्यक वस्तुएं व अपना गौधन लेकर वृंदावन में आकर बस गए।

अजगर बने अघासुर का वध किया श्रीकृष्ण ने

अजगर बने अघासुर का वध किया श्रीकृष्ण ने
भागवत में हम श्रीकृष्ण द्वारा वृंदावन मे की गई लीलाओं को पढ़ रहे हैं। एक दिन भगवान श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों के साथ गायों को चराने वन में गए। उसी समय वहां अघासुर नाम का भयंकर दैत्य भी आ गया । वह पूतना और बकासुर का छोटा भाई तथा कंस का भेजा हुआ था।वह इतना भयंकर था कि देवता भी उससे भयभीत रहते थे और इस बात की बाट देखते थे कि किसी प्रकार से इसकी मृत्यु का अवसर आ जाए।

कृष्ण को मारने के लिए अघासुर ने अजगर का रूप धारण कर लिया और मार्ग में लेट गया। उसका वह अजगर शरीर एक योजन लम्बे बड़े पर्वत के समान विशाल एवं मोटा था।अघासुर का यह रूप देखकर बालकों ने समझा कि यह भी वृंदावन की कोई शोभा है। उसका मुंह किसी गुफा की तरह दिखता था। बाल-ग्वाल उसे समझ न सके और कौतुकवश उसे देखने लगे। देखते-देखते वे अजगर के मुंह में ही घुस गए। लेकिन श्रीकृष्ण अघासुर की माया को समझ गए।
अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान श्रीकृष्ण को अपनी डाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था। परन्तु उसी समय श्रीकृष्ण ने अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से बढ़ा लिया कि अजगररुपी अघासुर का गला ही फट गया। आंखें उलट गईं। सांस रुककर सारे शरीर में भर गई और उसके प्राण निकल गए। इस प्रकार सारे बाल-ग्वाल और गौधन भी सकुशल ही अजगर के मुंह से बाहर निकल आए। कान्हा ने फिर सबको बचा लिया। सब मिलकर कान्हा की जय-जयकार करने लगे।

वत्सासुर व बकासुर का वध किया श्रीकृष्ण ने

वत्सासुर व बकासुर का वध किया श्रीकृष्ण ने
 
वृंदावन में रहते हुए श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई के साथ गाय-बछड़ों को चराने के लिए जाने लगे। कंस ने वत्सासुर राक्षस को वहां भेजा। एक दिन कृष्ण ने देखा कि बछड़े व्याकुल होने लगे, तो उन्होंने स्थिति समझकर वत्सासुर को टांगों से पकड़ा और उसका प्राणान्त कर दिया।

एक दिन की बात है, सब ग्वालबाल अपने बछड़ों को पानी पिलाने के लिए जलाशय के तट पर ले गए। उन्होंने पहले बछड़ों को जल पिलाया और फिर स्वयं भी पिया। ग्वालबालों ने देखा कि वहां एक बहुत बड़ा जीव बैठा हुआ है। वह ऐसा मालूम पड़ता था, मानो इन्द्र के वज्र से कटकर कोई पहाड़ का टुकड़ा गिरा हो।
ग्वालबाल उसे देखकर डर गए। वह बक नाम का एक बड़ा भारी असुर था जो बगुले का रूप धर के वहां आया था। उसकी चोंच बड़ी तीखी थी और वह स्वयं बड़ा बलवान था। उसने झपटकर श्रीकृष्ण को निगल लिया। जब कृष्ण बगुले के तालु के नीचे पहुंचे, तब वे आग के समान उसका तालु जलाने लगे। बकासुर ने तुरंत ही कृष्ण को उगल दिया और फिर बड़े क्रोध से अपनी कठोर चोंच से उन पर चोट करने लगा। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसकी चोंच पकड़कर दो टुकड़े कर दिए। ऐसी वीरता देखकर ग्वालबाल आश्चर्यचकित हो गए।
जब बलराम आदि बालकों ने देखा कि श्रीकृष्ण बगुले के मुंह से निकल कर हमारे पास आ गए हैं, तो बड़ा आनन्द हुआ। सबने कृष्ण को गले लगाया। इसके बाद अपने-अपने बछड़े हांककर सब वृंदावन में आए और वहां उन्होंने घर के लोगों को सारी घटना कह सुनाई।

अजगर बने अघासुर का वध किया श्रीकृष्ण ने

अजगर बने अघासुर का वध किया श्रीकृष्ण ने
 
भागवत में हम श्रीकृष्ण द्वारा वृंदावन मे की गई लीलाओं को पढ़ रहे हैं। एक दिन भगवान श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों के साथ गायों को चराने वन में गए। उसी समय वहां अघासुर नाम का भयंकर दैत्य भी आ गया । वह पूतना और बकासुर का छोटा भाई तथा कंस का भेजा हुआ था।वह इतना भयंकर था कि देवता भी उससे भयभीत रहते थे और इस बात की बाट देखते थे कि किसी प्रकार से इसकी मृत्यु का अवसर आ जाए।

कृष्ण को मारने के लिए अघासुर ने अजगर का रूप धारण कर लिया और मार्ग में लेट गया। उसका वह अजगर शरीर एक योजन लम्बे बड़े पर्वत के समान विशाल एवं मोटा था।अघासुर का यह रूप देखकर बालकों ने समझा कि यह भी वृंदावन की कोई शोभा है। उसका मुंह किसी गुफा की तरह दिखता था। बाल-ग्वाल उसे समझ न सके और कौतुकवश उसे देखने लगे। देखते-देखते वे अजगर के मुंह में ही घुस गए। लेकिन श्रीकृष्ण अघासुर की माया को समझ गए।
अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान श्रीकृष्ण को अपनी डाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था। परन्तु उसी समय श्रीकृष्ण ने अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से बढ़ा लिया कि अजगररुपी अघासुर का गला ही फट गया। आंखें उलट गईं। सांस रुककर सारे शरीर में भर गई और उसके प्राण निकल गए। इस प्रकार सारे बाल-ग्वाल और गौधन भी सकुशल ही अजगर के मुंह से बाहर निकल आए। कान्हा ने फिर सबको बचा लिया। सब मिलकर कान्हा की जय-जयकार करने लगे।

कालिया नाग की पत्नियां कृष्णा से बोली..

कालिया नाग की पत्नियां कृष्णा से बोली..
कालिया नाग के एक सौ एक सिर थे। वह अपने जिस शरीर को नहीं झुकाता था, उसी को प्रचण्ड दण्डधारी भगवान् अपने पैरों की चोट से कुचल डालते। इससे कालिया नाग की जीवनशक्ति क्षीण हो चली, वह मुंह और नथुनों से खून उगलने लगा। अन्त में चक्कर काटते-काटते वह बेहोश हो गया। अपने पति की यह दशा देखकर उसकी पत्नियां भगवान् की शरण में आयीं। और बोली अपराध सह लेना चाहिए। यह मूढ है, आपको पहचानता नहीं है, इसलिए इसे क्षमा कर दीजिए। भगवन् कृपा कीजिए, अब यह सर्प मरने ही वाला है। नागपत्नियों की याचना से भगवान पिघल गए। कालिया को मृत्युदण्ड देने का इरादा त्याग दिया।
भगवान के प्रहारों से आहत कालिया का दंभ भी टूट चुका था। धीरे-धीरे कालिया नाग की इन्द्रियों और प्राणों में कुछ-कुछ चेतना आ गई। वह बड़ी कठिनता से श्वास लेने लगा और थोड़ी देर के बाद बड़ी दीनता से हाथ जोड़कर भगवान् श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोला-हम जन्म से ही तमोगुणी और बहुत दिनों के बाद भी बदला लेने वाले-बड़े क्रोधी जीव हैं। जीवों के लिए अपना स्वभाव छोड़ देना बहुत कठिन है। इसी के कारण संसार के लोग नाना प्रकार के दुराग्रहों में फंस जाते हैं। आप सर्वज्ञ और सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं। आप ही हमारे स्वभाव और इस माया के कारण हैं। अब आप अपनी इच्छा से-जैसा ठीक समझें-कृपा कीजिए या दण्ड दीजिए।

जब कूद पड़े कान्हा विषैले जल में

जब कूद पड़े कान्हा विषैले जल में
में कालिया नाग का एक कुण्ड था। उसका जल विष की गर्मी से खौलता रहता था। यहां तक कि उसके ऊपर उडऩे वाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे। उसके विषैले जल की उत्ताल तरंगों का स्पर्श करके तथा उसकी छोटी-छोटी बूंदें लेकर जब वायु बाहर आती और तट के घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि का स्पर्श करती, तब वे उसी समय पर जाते थे।
भगवान् का अवतार तो दुष्टों का दमन करने के लिए ही होता है। जब उन्होंने देखा कि उस सांप के विष का वेग बड़ा प्रचण्ड है और वह भयानक विष ही उसका महान् बल है तथा उसके कारण मेरे विहार का स्थान यमुनाजी भी दूषित हो गई हैं, तब भगवान् श्रीकृष्ण अपनी कमर कसकर एक बहुत ऊंचे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गए और वहां से ताल ठोंककर उस विषैले जल में कूद पड़े। यमुनाजी का जल सांप के विश के कारण पहले से ही खौल रहा था। उसकी तरंगें लाल-पीली और अत्यन्त भयंकर उठ रही थीं। पुरुशोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के कूद पडऩे से उसका जल और भी उछलने लगा। उस समय तो कालियदह का जल इधर-उधर उछलकर चार सौ हाथ तक फैल गया। तट पर खड़े ग्वालबाल चिल्लाने लगे। कान्हा, ये क्या किया, भयंकर विष भरे जल में कूद गए। ग्वालबालों की दशा ऐसी हो गई जैसे दोबारा किसी ने उनके प्राण छीन लिए हों।
भगवान् श्रीकृष्ण कालियदह में कूदकर अतुल बलशाली मतवाले गजराज के समान जल उछालने लगे। आंख से ही सुनने वाले कालिया नाग ने वह आवाज सुनी और देखा कि कोई मेरे निवास स्थान का तिरस्कार कर रहा है। उसे यह सहन न हुआ। वह चिढ़कर भगवान् श्रीकृष्ण के सामने आ गया। उसने देखा कि सामने एक सांवला-सलोना बालक है।
उसने श्री कृ्ष्ण को मर्मस्थानों में डंसकर अपने शरीर के बन्धन से उन्हें जकड़ लिया। भगवान् श्रीकृष्ण नागपाश में बंधकर बेहोश हो गए। यह देखकर उनके प्यारे सखा ग्वालबाल बहुत ही पीडि़त हुए और उसी समय दु:ख, पश्चाताप और भय से मूच्र्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। क्योंकि उन्होंने अपने शरीर, सुहृद्, धन-सम्पत्ति, स्त्री, पुत्र, भोग और कामनाएं सब कुछ भगवान् श्रीकृष्ण को ही समर्पित कर रखा था। गाय, बैल, बछिया और बछड़े बड़े दु:ख से डकराने लगे। श्रीकृष्ण की ओर ही उनकी टकटकी बंध रही थी। वे डरकर इस प्रकार खड़े हो गए, मानो रो रहे हों। उस समय उनका शरीर हिलता-डोलता तक न था।
कुछ तट पर खड़े रहे, कुछ ग्वालबाल गांव की ओर दौड़ पड़े। नंदबाबा को बुलाओ, बलराम को बुलाओ पुकार मचने लगी। समाचार मिलते ही व्रजवासी भी यमुना तट पर दौड़ आए। कान्हा को कालिया नाग के चंगुल में देख उनके प्राण सूख गए।

जब ग्वालों ने पी लिया विषैला जल

जब ग्वालों ने पी लिया विषैला जल
भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दावन में कई तरह की लीलाएं करते। एक दिन श्री कृष्ण अपने सभी सखा यानी दोस्त ग्वालों को यमुना के तट पर लेकर गए। उस दिन बलराम जी कृष्णा के साथ नहीं थे।


आषाढ़ की चिलचिलाती धुप में ग्वाले गर्मी से बेहाल थे। प्यास से उनका कण्ठ सुख रहा था। इसलिए उन्होने यमुना जी का विषैला जल पी लिया। उन्हे प्यास के कारण इस बात का ध्यान नहीं रहा था। इसलिए सभी गौएं और ग्वाले प्राणहीन होकर यमुना के तट पर गिर पड़े। उन्हे ऐसी हालत में देखकर श्री कृष्ण ने उन्हें अपनी अपनी अमृत बरसाने वाली दृष्टी से जीवित कर दिया। उनके स्वामी और सर्वस्व तो एकमात्र श्री कृष्ण थे। चेतना आने पर वे सब यमुनाजी के तट पर उठ खड़े हुए और आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरे की ओर देखने लगे। अन्त में उन्होंने यही निष्चय किया कि हम लोग विषैला जल पी लेने के कारण मर चुके थे, परन्तु हमारे श्रीकृष्ण ने अपनी अनुग्रह भरी दृष्टि से देखकर हमें फिर से जीवित कर दिया है। यह भक्ति का वह रूप है जब भक्त अज्ञानवष कोई भयंकर भूल कर बैठता है और जीवन का सारा नियंत्रण खो देता है। तब ऐसे में भगवान ही अपने भक्तों पर इतना अनुग्रह रखते हैं कि उन्हें साक्षात् राम के बंधन से छुड़ा दें। बस, चित्त में कान्हा ही रहे।

धेनुकासुर राक्षस का वध क्यों किया बलराम ने?

धेनुकासुर राक्षस का वध क्यों किया बलराम ने?
वृंदावन में रहते हुए अब बलराम और श्रीकृष्ण ने पौगण्ड-अवस्था में अर्थात छठे वर्ष में प्रवेश किया। बलरामजी और श्रीकृष्ण के सखाओं में एक प्रधान गोपबालक थे श्रीदामा। एक दिन उन्होंने बड़े प्रेम से बलराम और श्रीकृष्ण से बोला कि - हम लोगों को सर्वदा सुख पहुंचाने वाले बलरामजी। आपके बाहुबल की तो कोई थाह ही नहीं है। हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण। दुष्टों को नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वभाव ही है।

यहां से थोड़ी ही दूर पर एक बड़ा भारी वन है। उसमें बहुत सारे ताड़ के वृक्ष हैं। वे सदा फलों से लदे रहते हैं। वहां धेनुक नाम का दुष्ट दैत्य भी रहता है। उसने उन फलों पर रोक लगा रखी है। वह दैत्य गधे के रूप में रहता है। श्रीकृष्ण। हमें उन फलों को खाने की बड़ी इच्छा है।
अपने सखा ग्वालबालों की यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों हंसे और फिर उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनके साथ तालवन के लिए चल पड़े। उस वन में पहुंचकर बलरामजी ने अपनी बांहों से उन ताड़ के पेड़ों को पकड़ लिया और बड़े जोर से हिलाकर बहुत से फल नीचे गिरा दिए। जब गधे के रूप में रहने वाले दैत्य ने फलों के गिरने का शब्द सुना, तब वह बलराम की ओर दौड़ा।
बलरामजी ने अपने एक ही हाथ से उसके दोनों पैर पकड़ लिए और उसे आकाश में घुमाकर एक ताड़ के पेड़ पर दे मारा। घुमाते समय ही उस गधे के प्राणपखेरू उड़ गए।
धेनुकासुर को जिस तरह मारा, ग्वालबाल बलराम के बल की प्रशंसा करते नहीं थकते। धेनुकासुर वह है जो भक्तों को भक्ति के वन में भी आनंद के मीठे फल नहीं खाने देता। बलराम बल और शौर्य के प्रतीक हैं, जब कृष्ण हृदय में हो तो बलराम के बिना अधूरे हैं। बलराम ही भक्ति के आनंद को बढ़ाने वाले हैं। ग्वालबाल अब मीठे फल भी खा रहे हैं।

ब्रह्माजी ने की श्रीकृष्ण की स्तुति

ब्रह्माजी ने की श्रीकृष्ण की स्तुति
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि ब्रह्माजी ने श्रीकृष्ण की परीक्षा लेने के लिए बछड़ों तथा उनके साथी बाल-ग्वालों को हर लिया। तब श्रीकृष्ण ने स्वयं उनका रूप धरा और वृंदावन चले गए। भगवान इस लीला में वही बात बता रहे हैं, जो बाद में महाभारत युद्ध के दौरान उन्होंने अर्जुन को बताई। सभी प्राणी उनका ही अंश हैं। सब में वे ही विराजित हैं। कोई आपकी देह यानी स्थूल रूप को तो हर कर ले जा सकता है लेकिन उसमें विराजित सूक्ष्म रूप को चुराया नहीं जा सकता।

इस तरह एक वर्ष का समय बीत गया तब एक दिन भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ बछड़ों को चराते हुए वन में गए। तब उसी समय ब्रह्माजी बह्मलोक से वृंदावन में लौट आए। उनके कालमान से अब तक केवल एक त्रुटि (क्षण) समय व्यतीत हुआ था। यहां आकर उन्होंने देखा कि जिन बछड़ों तथा बाल-ग्वालों को मैंने हर लिया है वे सब तो यहां उपस्थित हैं। तब ब्रह्माजी ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा तो पता चला कि सभी बछड़ों तथा बाल-ग्वालों में तो स्वयं कृष्ण विराजमान हैं।
यह दृश्य देखकर ब्रह्माजी चकित रह गए। वे भगवान के तेज से निस्तेज होकर मौन हो गए। ब्रह्माजी के इस मोह और असमर्थता को जानकर बिना किसी प्रयास के तुरंत अपनी माया का परदा हटा दिया। वे श्रीकृष्ण के पास गए और उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान श्रीकृष्ण ने भी उन्हें प्रणाम किया। श्रीकृष्ण के कहने पर ब्रह्माजी ने उन बछड़ों तथा बाल-ग्वालों को छोड़ दिया। भगवान की माया से किसी को इस बात का आभास नहीं हुआ।

ब्रह्माजी ने कैसे ली श्रीकृष्ण की परीक्षा?

ब्रह्माजी ने कैसे ली श्रीकृष्ण की परीक्षा?
 
  भगवान की लीलाओं को देखकर ब्रह्माजी ने उनकी परीक्षा लेने का मन बनाया।

एक दिन जब श्रीकृष्ण अपने साथी बाल-ग्वालों के साथ वन में गायों को चराने गए तो ब्रह्माजी भी वहां आ गए और बालकृष्ण की परीक्षा लेने का उपाय सोचने लगे। गायों को चराते-चराते कृष्ण आदि बाल-ग्वाल जब यमुना के पुलिन पर आए तो कृष्ण ने उनसे कहा कि यमुनाजी का यह पुलिन अत्यंत रमणीय है। अब हम लोगों को यहां भोजन कर लेना चाहिए क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हम लोग भूख से पीडि़त हो रहे हैं। बछड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें। सभी ने कृष्ण की बात मान ली।
उसी समय उनकी गाए व बछड़े हरी-हरी घास के लालच में घोर जंगल में बड़ी दूर निकल गए। जब ग्वालबालों का ध्यान उस ओर गया, तब वे भयभीत हो गए। तब कृष्ण उन सभी को वहीं छोड़कर स्वयं गायों व बछड़ों को लेने वन में चले गए। कृष्ण के वन में जाते ही ब्रह्माजी ने अपनी लीला दिखा दी व गौधन को अदृश्य कर दिया। बहुत ढूंढने पर भी जब गाएं आदि नहीं मिले तो कृष्ण वापस लौट आए। यहां आकर उन्होंने देखा कि उनके साथी ग्वाल-बाल भी अपने स्थान पर नहीं है।
तब उन्होंने वन में घूम-घूमकर चारों ओर उन्हें ढूंढा। परन्तु जब ग्वालबाल और बछड़े उन्हें कहीं न मिले, तब वे तुरंत जान गए कि यह सब ब्रह्माजी की ही माया है। तब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं बछड़ों तथा उन बाल-ग्वालों का रूप बना लिया और वृंदावन चले गए। किसी को इस बात का पता नहीं चला।

मित्रता के सूत्र सीखें कृष्ण से

मित्रता के सूत्र सीखें कृष्ण से
प्रलंबासुर वध-कंस का भेजा गया प्रलंबासुर नामक राक्षस गोप ग्वालों के मध्य आ गया। कृष्ण ने पहचाना अपने बड़े भाई को संकेत समझा दिया और खेल में जब घोड़ा बनने की बारी आई तो बलराम उसकी पीठ पर बैठ गए वो बलराम को लेकर दूर भागा। अपने वास्तविक रूप में जब आया तो बलराम ने उसकी भलीभांति पिटाई की और वही उसका प्रणान्त हो गया।

राम और श्याम वृन्दावन की नदी, पर्वत, घाटी, कुन्ज, वन और सरोवरों में वे सभी खेल खेलते, जो साधारण बच्चे संसार में खेला करते है। एक दिन जब बलराम और श्रीकृश्ण ग्वालबालों के साथ उस वन में गौएं चरा रहे थे, तब ग्वाल के वेश में प्रलम्ब नाम का एक असुर आया। उसकी इच्छा थी कि मैं श्रीकृष्णऔर बलराम को हर ले जाऊँ।
भगवान् श्रीकृष्ण सर्वज्ञ हैं। वे उसे देखते ही पहचान गए। फिर भी उन्होंने उसका मित्रता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। जब भी जीवन में बुराइयां प्रवेश करती है तो यह आवश्यक नहीं कि वे शत्रु बनकर ही आएं। कुछ बुराइयां मित्र भी होती हैं। भगवान ही उनको पहचान सकते हैं। वे इसे समझ जाते हैं और जब मित्र के रूप में आया संकट अपना रूप दिखाता है तो भगवान इसे तत्काल खत्म कर देते हैं।

बस सोचिए तो, हर काम आसान हो जाएगा

बस सोचिए तो, हर काम आसान हो जाएगा
जगत के सब कार्य करते हुए उनके प्रति अनासक्त हुए बिना वैराग्य में दृढ़ता नहीं आती। वैराग्य और अभ्यास के समानान्तर पथ पर चलकर ही जीवन आध्यात्म की मंजिल, मोक्ष, ईश्वर प्राप्ति, परमानन्द प्राप्त कर सकता है। यह अत्यन्त कठिन और अत्यन्त सरल है। कठिनता और सरलता इसके प्रति दृष्टिकोण पर निर्भर करती है।
सतत् अभ्यास से सहजता आती है और सहजता सरल बनाती है। इसके विपरित कठिनता है। सब भावना का खेल है। यदि भावना हो कि मेरे प्रियतम परमात्मा मेरे अन्दर हैं और मैं सर्वव्यापी परमात्मा के अन्दर मैं हूं, बस काम आसान हो जाता है। इस भावना को आत्मबोध की संज्ञा दी जा सकती है और जब यह निरन्तर बनी रहती है तब इसे आत्मदर्शन कहा जा सकता है। इसमें दृढ़ता व अनन्यता आने पर जो अभ्यास से आती है, आत्म प्रबोधिक साधक अपने मानव जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, इसे जीवनमुक्त अवस्था की भी संज्ञा दी जाती है।
जीवन मुक्त में अटूट आत्मबल होता है। आत्मबली का मन निश्चल, निर्मल, स्थिर और षक्ति सम्पन्न होता है।यह प्रसंग अग्नि के माध्यम से हमको समझा रहा है कि जीवन में अनासक्ति, वैराग्य का क्या महत्व है।
अब तक भागवत में आपने पड़ा कि कृष्णा कालीया नाग के आतंक से ब्रजवासियों को मुक्त करवाने के लिए यमुना में कूद पड़ते हैं और कालीया नाग का मर्दन करते है अब आगे की कथा इस प्रकार है..व्रजवासी और गौएं सब बहुत ही थक गए थे। ऊपर से भूख-प्यास भी लग रही थी। इसलिए उस रात वे व्रज में नहीं गए, वही यमुनाजी के तट पर सो रहे। गर्मी के दिन थे, उधर का वन सूख गया था। आधी रात के समय उसमें आग लग गई। उस आग ने सोये हुए व्रजवासियों को चारों ओर से घेर लिया और वह उन्हें जलाने लगी। आग की आंच लगने पर व्रजवासी घबड़ाकर उठ खड़े हुए और लीला- मनुष्य भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में गए।
उन्होंने कहा-प्यारे श्रीकृष्ण! श्यामसुन्दर! महाभाग्यवान् बलराम! तुम दोनों का बल विक्रम अनन्त है। देखा, देखो यह भयंकर आग तुम्हारे सगे सम्बन्धी हम स्वजनों को जलाना ही चाहती है। तुम में सब सामथ्र्य है। हम तुम्हारे सुहृद् हैं, इसलिए इस प्रलय की अपार आग से हमें बचाओ। प्रभो! हम मृत्यु से नहीं डरते, परन्तु तुम्हारे अकुतोभय चरण कमल छोडऩे में हम असमर्थ हैं। भगवान् अनन्त हैं, वे अनन्त शक्तियों को धारण करते हैं, उन जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने जब देखा कि मेरे स्वजन इस प्रकार व्याकुल हो रहे हैं तब वे उस भयंकर आग को पी गए।

द्रोपदी ने कर्ण को देखा तो बोल पड़ी...

द्रोपदी ने कर्ण को देखा तो बोल पड़ी...
गंधर्व से कल्माषपद की और वशिष्ठ की महिमा सुनने के बाद सभी पांडवों ने धौम्य ऋषि को अपना पुरोहित बनाया और अपनी माता को लेकर द्रुपद श्रेष्ठ के देश उनके पुत्री द्रोपदी के विवाह को देखने चल पड़े। पांडव द्रुपद देश की ओर चलने लगे। रास्ते में उन्होने वेद व्यास के दर्शन किए। जब पाण्डवों ने देखा कि द्रुपद नगर निकट आ गया है तो उन्होने एक कुम्हार के घर डेरा डाल दिया और ब्राम्हा्रणों के समान भिक्षावृति करके अपना जीवन बिताने लगे। राजा द्रुपद के मन में भी इस बात की बड़ी लालसा था कि वे अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन से किया। इसलिए अर्जुन को पहचानने के लिए उन्होंने एक ऐसा धनुष बनवाया जो कोई ओर ना तोड़ पाए। इसके अलावा उन्होंने एक ऐसा यंत्र टंगवा दिया जो चक्कर काटता रहे। द्रुपद ने यह घोषणा कर दी कि जो धनुष पर डोरी चढ़ाकर लक्ष्य का भेदन करेगा, वही मेरी पुत्री को प्राप्त करेगा।

युधिष्ठिर आदि राजा द्रुपद आदि उनका वैभव देखते हुए वहां आए और उन्हीं के पास बैठ गए।
धृष्टद्युम्र ने द्रोपदी के पास खड़े होकर मधुर वाणी में कहा यह धनुष है, यह और आप लोगों के सामने लक्ष्य है। आप लोग घूमते हुए यन्त्र में अधिक से अधिक पांच बाणों में जो भी लक्ष्य भेदन कर देगा द्रोपदी का विवाह उसी से होगा। ध्रष्टद्युम्र की बात सुनकर दुर्योधन, शाल्व, शल्य राजा और राजकुमारों ने अपने बल के अनुसार धनुष चढ़ाने की कोशिश की लेकिन ऐसा झटका लगा कि वे बेहोश हो गए और इसके कारण उनका उत्साह टूट गया। इन सभी को निराश देखकर धर्नुधर शिरोमणी कर्ण उठा।
उसने धनुष को उठाया और देखते ही देखते डोरी चढ़ा दी। उसे लक्ष्य वेधन करता देख द्रोपदी जोर से बोली मैं सुत पुत्र से विवाह नहीं करूंगी। कर्ण ने ईष्र्या भरी हंसी के साथ सूर्य को देखा और धनुष को नीचे रख दिया।उसके बाद शिशुपाल ने भी यही प्रयत्न और जरासन्ध ने भी प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाए। उसी समय अर्जुन ने चित्त में संकल्प उठा कि मैं लक्ष्यवेधन करूं ।

तप क्या है?

तप क्या है? 

तप- तप का उद्देश्य पूर्व संचित संस्कारों को रोकना और भविष्य के संस्कारों को संचित न होने देना है। तप स्वाध्याय जप तथा सद्ग्रंथों का पठन-पाठन और ईश्वर प्रणिधान तीनों मिलकर भोग कहे जाते हैं। शरीर, इन्द्रियों व मन का संयम तप शारीरिक वाचिक तथा मानसिक तीन प्रकार का होता है।

व्रत, उपवास रखना, भक्ष्य अभक्ष्य का ध्यान रखना, तीर्थाटन करना, गर्मी, सर्दी सहन करना आदि सात्विक श्रेणी के कार्य करना-यथा शक्ति सहन करना। मानसिकता में मान, अपमान में समता। वाचिक रूप में सत्य बोलना, कम बोलना (आवश्यक बोलना) मौन का अर्थ हृदयगत विचार शून्यता कही जा सकती है। यहां इस घटना में अग्रि को तप से जोड़ा गया है। भक्त का तपस्वी होना ही उसका गहना है।
एक बार जब ग्वालबाल खेल कूद में लग गए, तब उनकी गौएं बेरोकटोक चरती हुई बहुत दूर निकल गईं और हरी-हरी घास के लोभ से एक गहन वन में घुस गईं। उनकी बकरियां, गायें और भैंसे एक वन से दूसरे वन में होती हुई आगे बढ़ गईं तथा गर्मी के ताप से व्याकुल हो गईं।
जब श्रीकृष्ण, बलराम आदि ग्वालबालों ने देखा कि हमारे पशुओं का तो कहीं पता ठिकाना नहीं है, तब उन्हें अपने खेल-कूद पर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज बीन करने पर भी अपनी गौओं का पता न लगा सके। इस प्रकार भगवान् उन गायों को पुकार ही रहे थे कि उस वन में सब ओर अकस्मात् दावाग्रि लग गई जो वनवासी जीवों का काल ही होती है। इससे सब ओर फैली हुई वह प्रचण्ड अग्नि अपनी भयंकर लपटों से समस्त चराचर जीवों को जलाने करने लगी। जब ग्वालों और गौओं ने देखा कि दावानल चारों ओर से हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गए और मृत्यु के भय से डरे हुए जीव जिस प्रकार भगवान् की शरण में आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजी की शरण में आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजी के शरणापन्न होकर उन्हें पुकारते हुए बोले-महावीर श्रीकृष्ण! परम बलशाली बलराम! हम तुम्हारे शरणागत हैं।
देखो, इस समय हम दावानल से जलना नही चाहते हैं। तुम दोनों हमें बचाओ।श्रीकृष्ण ने कहा-डरो मत, तुम अपनी आंखें बंद कर लो। भगवान् की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालों ने कहा बहुत अच्छा और अपनी आंखें मूंद ली। तब योगेष्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने उस भयंकर आग को अपने मुंह से पी लिया और इस प्रकार उन्हें घोर संकट से छुड़ा दिया।

मन की चुप्पी ही मौन है

मन की चुप्पी ही मौन है
बांसुरी का एक गुण यह भी है कि जब वह अकेली होती है तब मौन ही रहती है। हम भी ईश्वर के ध्यान में एकांत के समय मौन का पालन करें। कई लोग शरीर से तो सावधान रहते हैं, मुंह बन्द रखते हैं किन्तु मन से चलते-फिरते बोलते रहते हैं। मौन का अर्थ है मन से भी कुछ न बोला जाए। मन का मौन ही सर्वोत्तम मौन है। बांसुरी वादन तो नाद ब्रह्म की उपासना है। बांसुरी को लेकर गोपियां चर्चा करती हैं कि अरी सखी यह कन्हैया बंसी बजा रहा है।

दूसरी गोपी कहती है ये बंसी नहीं कृष्ण की पटरानी है। मैंने सुना है कि जब वह भोजन करने बैठता है तब बांसुरी को कमर की फेंट में ही रखता है और जब सोता है तो उसे अपने साथ सेज पर रखता हैं, आंखें दासियां हैं, पलकें पंखे हैं, नथनी छत्र है। इस बांसुरी का परमात्मा के साथ विवाह हुआ है। अत: इसे नित्य संयोग प्राप्त हुआ। इस वेणु ने अपने पूर्व जन्म में न जाने कौन सी तपस्चर्या की कि उसे कृष्ण के अधरामृत का नित्यपान करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।एक गोपी ने बांसुरी से पूछा-अरी सखी! तूने ऐसा कौन सा पुण्य कमाया था, कि तुझे प्रभु ने अपना लिया। बांसुरी बोली-मैंने बड़ी तपस्चर्या की। मेरा पेट खाली है, मैं अपने पेट में कुछ भी नहीं रखती। बांसुरी अपने पेट में कुछ भी नहीं रखती। जो बांसुरी जैसा बन जाता है, वह भगवान् को भाता है।

जब कृष्ण ने हर लिए गोपियों के वस्त्र...

जब कृष्ण ने हर लिए गोपियों के वस्त्र...
 
श्रीकृष्ण तो सर्वव्यापी हैं वे जल में भी हैं। तो गोपियों से मिले हुए ही थे। किन्तु गोपियां अज्ञान और वासना से आवृत्त होने के कारण श्रीकृष्ण का अनुभव नहीं कर पाती थीं। सो उनके बुद्धिगत अज्ञान और वासना रूपी वस्त्रों को भगवान् उठाकर ले गए। वैसा प्रभु तब करते हैं जबकि जीव उनका हो जाता है।देह से ऊपर उठना होगा तब यह प्रसंग समझ में आएगा। हम अपने शरीर को समझें। गोपियां नित्य की भांति स्नान करने के लिए वस्त्र उतारकर नदी में प्रवेश कर गईं।

कृष्ण भगवान् भी अपने मित्रों के सहित उस ओर गए। उन्होंने गोपियों को इस प्रकार वरूणदेव का अनादर करते देखा तो वे उन्हें पाठ पढ़ाने के लिए वे उनके वस्त्र लेकर कदम के वृक्ष पर चढ़ गए। गोपियां इससे त्रस्त हो गईं। बहुत अनुनय-विनय करने के बाद उन्होंने वस्त्र लौटाए। गोपियां इससे रूष्ट नहीं हुईं, उन्हें कृष्ण का हर आचरण प्रिय था।इस चीर हरण की लीला में भी एक रहस्य है। कुमारियों के मन में ऐसी भावना थी कि वे नारी हैं ऐसा भाव अहंकार का द्योतक है। उनका वह अहमभाव दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने वैसा व्यवहार किया।
क्योंकि अब रास लीला आने वाली है और रासलीला के गहन अर्थ को जो समझेगा, वही इस चीरहरण के अर्थ को समझेगा। भगवान उन्हीं को रासलीला में ले जाएंगे जिन्हें देह का भान नहीं होगा। उनका वह अहम्भाव दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने उस प्रकार का व्यवहार किया। इस लीला में अहंकार का पर्दा हटाकर प्रभु को सर्वस्व अर्पण करने का उद्देष्य है। द्वेष का आवरण दूर करोगे, तो रास में प्रवेष मिलेगा, भगवान् मिलेगा।
वासना वृत्तियों के आवरण का नष्ट होना ही चीरहरण लीला है। आवरण नाश के पश्चात् जीव के आत्मा का प्रभु से मिलन रासलीला है। इसी कारण से रासलीला चीरहरण के बाद आती है। भगवान् कभी लौकिक वस्त्रों की चोरी नहीं करते।
वे तो बुद्धिगत अज्ञान कामवासना की चोरी करते हैं। सोचिए, क्या कन्हैया गोपियों का नग्न अवस्था में देखना चाहते है? नहीं।श्रीकृष्ण तो सर्वव्यापी हैं वे जल मेंभी हैं। तो गोपियों से मिले हुए ही थे। किन्तु गोपियां अज्ञान और वासना से आवृत्त होने के कारण श्रीकृष्ण का अनुभव नहीं कर पाती थीं। सो उनके बुद्धिगत अज्ञान और वासना रूपी वस्त्रों को भगवान् उठाकर ले गए। वैसा प्रभु तब करते हैं जबकि जीव उनका हो जाता है।देह से ऊपर उठना होगा तब यह प्रसंग समझ में आएगा।

रासलीला कामलीला नहीं, कामविजय लीला है

रासलीला कामलीला नहीं, कामविजय लीला है
 
रास-कार्तिक मास की पूर्णिमा की रात्रि में रासलीला के कार्यक्रम निश्चय अनुसार श्रीकृष्ण निर्धारित स्थान और समय पर वहां पहुंच कर बांसुरी बजाने लगे। रासलीला को समझ लीजिए। रासलीला के तीन सिद्धान्त हैं। इसमें गोपी के शरीर के साथ कुछ लेना-देना नहीं है।

इसमें लौकिक काम भी नहीं है और तीसरी बात यह साधारण स्त्री पुरूष का नहीं, जीव और ईश्वर का मिलन है। शुद्ध जीव का ब्रह्म के साथ विलास ही रास है। शुद्ध जीव का अर्थ है माया के आवरण से रहित जीव। ऐसे जीव का ब्रम्ह से मिलन होता है। शुकदेवजी कहते हैं कि इस लीला का चिन्तन करना है अनुकरण नहीं। शरद पूर्णिमा की रात्रि आई। रासलीला कामलीला नहीं है यह तो काम विजय लीला है। ब्रह्मादि देवों की पराजय हुई तो कन्दर्प कामदेव का अभिमान जाग उठा कि अब तो मैं ही सबसे बड़ा देव हूं। उसने कृष्ण के पास आकर मल्लयुद्ध का प्रस्ताव रखा।
श्रीकृष्ण-काम-ऐसी कथा आती है कि काम का एक नाम मार भी है। उसे सभी मारते हैं कृष्ण ने कामदेव से पूछा कि शिवजी ने तुझे भस्मीभूत कर दिया था, वह क्या भूल गया तू ? कामदेव बोला हां वह तो ठीक है मुझसे जरा गड़बड़ हो गई थी। कृष्ण ने कहा कि रामावतार में भी तू हार गया। काम ने कहा आपने उस अवतार में मर्यादा का अतिशय पालन करके मुझे हराया। उस अवतार में आप एक पत्नी व्रत का पालन करते थे, तो मैं हार गया।
अब तेरी क्या इच्छा है? कृष्ण ने पूछा। कामदेव बोला-अब आप इस कृष्णावतार में तो किसी मर्यादा का पालन करते नहीं और वृन्दावन की युवतियों के साथ विहार किया करते हैं। मैं चाहता हूं कि आप पर तीर चलाऊं, यदि आप निर्विकारी रहेंगे तो विजय आपकी होगी और आप कामाधीन होंगे तो विजय मेरी होगी। आप निर्विकारी रहेंगे तो आपको ईश्वर मानुंगा और कामधीन हो गए तो मैं ईश्वर बन जाऊंगा।
श्रीकृष्ण ने अनगिनत सुंदरियों के साथ रहकर काम का पराभव किया।काम ने धनुष-बाण फेंक दिए और श्रीकृष्ण की शरण ले ली। श्रीकृष्ण का नाम मदनमोहन हैं। श्रीकृष्ण तो योग योगेश्वर हैं। काम ने प्राय: सभी को हरा दिया था। सो उसका गर्विष्ठ होना सहज था। रासलीला से भगवान् ने उसके गर्व का नाश कर दिया। काम विशेषत: रात्रि के दूसरे पहर में अधिक आता है। सो उस समय स्नान आदि करके पवित्र होकर रासलीला का चिन्तन करोगे तो काम नहीं सताएगा। पुन: स्मरण कर लें कि रासलीला अनुकरणीय नहीं, चिन्तनीय है। उसका चिन्तन कामनाशी है। प्रभु ने सोचा कि इन गोपियों का प्रेम सच्चा है। यदि मैं आज इन्हें दूर हटाऊंगा तो ये प्राण त्याग कर देंगी। प्रभु को विश्वास हो गया कि जीव शुद्ध भाव से मुझे मिलने आया है तो उन्होंने अपना लिया। प्रभु ने साथ ही अनेक स्वरूप भी धारण किए। जितनी गोपियां थीं उतने स्वरूप बना लिए और प्रत्येक गोपी के साथ एक-एक स्वरूप रखकर रास आरम्भ किया।

श्रीमद्भगवद्गीता श्रीकृष्ण उवाच:

  • राजेन्द्र सिंह चौहान एडवोकेट

श्रीमद्भगवद्गीता  श्रीकृष्ण उवाच: